अमेरिकी विदेश विभाग
अप्रैल 8, 2021
जॉन केरी, जलवायु मामलों पर राष्ट्रपति के विशेष दूत
संबोधन
श्री केरी: सबसे पहले मैं ये कहना चाहूंगा कि मेरे लिए ये एक शानदार दौरा था। बेहद उपयोगी। और मुझे आपके साथ संवाद करने और आपके सवालों का इंतज़ार है।
क्या आपने इससे पहले कही मेरी बात सुनी?
मैंने कहा था कि मुझे लगता है कि मेरी भारत यात्रा बहुत ही रचनात्मक रही और मुझे प्रमुख मंत्रियों — पर्यावरण मंत्री, ऊर्जा मंत्री, बिजली मंत्री, वित्त मंत्री, विदेश मंत्री — के साथ मिलकर अच्छा लगा। मैं नीति [आयोग] के अमिताभ कांत से भी मिला। तो इस तरह हमारे सामने मौजूद व्यापक चुनौतियों तथा जलवायु के बारे में नवीनतम सोच और हमारी दिशा के संदर्भ में हमने बहुत अच्छी चर्चा की।
इस यात्रा का मुख्य भाव ये है कि राष्ट्रपति बाइडेन जलवायु संकट से निपटने के वास्ते आक्रामक तरीक़े से आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने इसे प्रशासन की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल किया है। चार शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक – कोविड-19; अर्थव्यवस्था; अमेरिका में विभाजन, नस्लीय विभाजन की स्थिति को ठीक करना; तथा जलवायु। और जलवायु हमारी आर्थिक रिकवरी से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। हम सभी के लिए यह नौकरियों के वास्ते, नई टेक्नोलॉजी के लिए, बदलाव के लिए, एक नई अर्थव्यवस्था के लिए, एक नई ऊर्जा अर्थव्यवस्था के लिए एक बहुत बड़ा आर्थिक अवसर है, और हम इसको लेकर बहुत उत्साहित हैं।
भारत एक प्रमुख साझेदार है। यह न केवल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, बल्कि मूल्यों की दृष्टि से यह एक ऐसा देश है, जो हमारी धरती से, पर्यावरण और अपने आसपास के वातावरण से हमारे संबंधों को बहुत महत्व देता है। और, मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ज़िम्मेदारी के भाव से बहुत प्रेरित हैं, जो हम समझते हैं कि एक महत्वपूर्ण साझेदारी की क्षमता प्रदान करता है। हमारे पास, हमारे दोनों ही राष्ट्रों में, नवोन्मेषी उद्यमी आबादी है जो निरंतर आविष्कारों के दायरे को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। अनुसंधान और विकास, नए उत्पादों के निर्माण और नए समाधानों में जुटी है। और मुझे लगता है कि यह साझेदारी वास्तव में विकास संबंधी बड़ी चुनौतियों वाले एक देश को एक ऐसे देश से जोड़ती है जो विकसित होने के बावजूद संक्रमणकालीन बुनियादी ढांचे और अन्य प्रकार की बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसलिए, काफ़ी समानताएं हैं और हम यहां अपने मित्रों के साथ काम करने के लिए बहुत तत्पर हैं।
तो इसी के साथ अब —
पत्रकार: नमस्कार। मैं इंद्राणी बागची हूं, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया से।
मेरा सवाल सेरा वीक के दौरान आपकी कही बात से जुड़ा है जहां आप अर्नेस्ट मोनिज़ से बातचीत कर रहे थे। आपने भारत में नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तीय समर्थन के लिए एक परिसंघ स्थापित करने की बात की थी। कैसे बनेगा ये परिसंघ? कौन से देश इसमें निवेश करना चाहेंगे?
श्री केरी: धन्यवाद। मुझे लगता है कि ऐसे बहुत से देश हैं जो निवेश करने को तैयार होंगे, जाहिर है निवेश की सही परिस्थितियां होने पर। लेकिन 450 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करने के प्रधानमंत्री मोदी के लक्ष्य की दिशा में प्रगति को तेज़ करने के तात्कालिक प्रयास के रूप में, हम समझते हैं कि यह एक ज़बरदस्त लक्ष्य है। हमें इसे एक प्रभावशाली लक्ष्य मानते हैं। हम उस लक्ष्य को हासिल करने की क्षमता का समर्थन सुनिश्चित करना चाहते हैं। ये उस साझेदारी का हिस्सा जिस पर कल की अपनी चर्चा में हम सहमत हुए हैं, कि हम बहुत घनिष्ठता पूर्वक साथ काम करने का इरादा रखते हैं, एन450 के कार्यान्वयन हेतु उसके टेक्नोलॉजी और वित्तीय घटकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए।
मैं यूएई होते हुए यहां आया था जहां हमारे देश और क्षेत्र के देशों के बीच सिर्फ जलवायु पर केंद्रित पहला मध्य पूर्व संवाद हुआ। इसमें कई अन्य देश, इस क्षेत्र के बहुत सारे देश शामिल हुए। हमारे साथ सूडान, मोरक्को, मिस्र, इराक़, कुवैत, बहरीन और यूएई जैसे देश थे, और सभी ग्लासगो सम्मेलन में कुछ गंभीर लक्ष्य हासिल करने तथा उत्सर्जन को कम करने और नई टेक्नोलॉजी को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ने की तत्परता पर बात करने के लिए एकजुट हुए थे। मैं आपको निश्चितता के साथ बता सकता हूं कि यूएई पहले से ही भारत के साथ मिलकर कुछ काम कर रहा है और उनकी हमारे साथ साझेदारी में बहुत रुचि है। मैंने अन्य देशों से भी बात की है – मैं उनका नाम नहीं बताने जा रहा हूं क्योंकि ऐसा करने का फैसला उनके हाथ में है, लेकिन मैं आपको बता सकता हूं कि यूरोप में कुछ देश हैं, हमारे महाद्वीप में कुछ देश हैं, जो इस संबंध में मदद की कोशिश करने को तैयार हैं।
इन सबका सार ये है कि हमें मोदी सरकार के साथ इस दिशा में विस्तार से काम करना होगा, जोकि वास्तव में पहले ही शुरू हो चुका है, लेकिन हम अगले कुछ हफ़्तों में इस काम को तेज़ करने, बहुत ही तेज़ करने के लिए प्रयासरत रहेंगे।
इसकी वजह है समय का बीतते जाना। ग्लासगो सम्मेलन के लिए समय निकलता जा रहा है, 2030 के लक्ष्यों के लिए समय बीतता जा रहा है।
हम 2020-2030 को एक अहम, निर्णायक दशक के रूप में देखते हैं। यह वो अवधि है जिसके दौरान 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की सीमा को संभावना बनाए रखने की कोशिश करने के लिए हमें हरसंभव प्रयास करने होंगे, और यह वो अवधि है जिसके दौरान हम 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य के लिए रोडमैप तैयार करेंगे। लेकिन 2050 में नेट-ज़ीरो की तुलना में ये ध्यान रखना कहीं अधिक अहम है कि 2020-2030 की अवधि शुरू हो चुकी है [अश्रव्य], क्योंकि यदि आप इस दौरान पर्याप्त प्रयास नहीं करते हैं, तो अन्य लक्ष्य असंभव हैं। हमारे पास तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री के दायरे में रखने की क्षमता नहीं होगी और हम अन्य लक्ष्यों को हासिल [अश्रव्य] नहीं कर पाएंगे। इसलिए वर्तमान दौर अहम है। हम देरी नहीं कर सकते। तत्काल क़दम उठाने होंगे। प्रधानमंत्री मोदी इसे समझते हैं। वह आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं और राष्ट्रपति बाइडेन की भी यही प्रतिबद्धता है।
पत्रकार: गौरव सैनी, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया से। क्या आप भारत के ऊर्जा मंत्री के सुझाव से सहमत हैं कि नेट-ज़ीरो उत्सर्जन [अश्रव्य] की चर्चा के बजाय हम नेट-निगेटिव उत्सर्जन की बात करें? [अश्रव्य]
श्री केरी: लोग 2050 के लिए जिस लक्ष्य की बात कर रहे हैं, वह उस समय तक नेट-ज़ीरो की है। लेकिन मुझे लगता है कि एक समय के बाद हम शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने जा रहे हैं, और एक समय बाद जब हमारे पास क्षमता होगी, तो हमें नेट-निगेटिव होने की आवश्यकता होगी। हां, बिल्कुल सही। यहां तक कि अगर हम 2050 तक नेट-ज़ीरो पर पहुंच गए, तब भी हमारे पास वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड निकालने का मिशन होगा, क्योंकि ये वायुमंडल में इतनी अधिक मात्रा में है कि 2050 में नेट-ज़ीरो होने के बाद भी, हमें उसका नुक़सान उठाते रहना पड़ेगा, और अब उसमें मीथेन गैस भी जुड़ती जा रही है। मीथेन बहुत तेज़ी से उत्सर्जित हो रही है जोकि बहुत ख़तरनाक बात है क्योंकि मीथेन से होने वाला नुक़सान 20 से 100 गुना अधिक है। मुझे अलग-अलग आंकड़े सुनने को मिलते हैं, लेकिन मैंने सुना है कि यह CO2 की तुलना में न्यूनतम 20 गुना अधिक हानिकारक है। यह उतने लंबे समय तक मौजूद नहीं रहती है, लेकिन यह कहीं अधिक हानिकारक है। तो अब ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि अलास्का में पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है। साइबेरिया में टुंड्रा क्षेत्र पिघल रहा है। दुनिया भर में नज़र दौड़ाने पर हमें न सिर्फ मीथेन से बल्कि अन्य ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ता ख़तरा साफ़ दिखता है।
इसलिए हमारा फ़ोकस केवल CO2 पर ही नहीं है। हम तमाम ग्रीनहाउस गैसों पर ध्यान दे रहे हैं जिनमें मीथेन संभवत: सर्वाधिक विनाशकारी है।
पत्रकार: जयश्री नंदी, हिंदुस्तान टाइम्स से। इसी से संबंधित मेरे कुछ सवाल हैं। पहला सवाल ये कि क्या भारतीय अधिकारियों के साथ आपकी कार्बन मार्केट या कार्बन ट्रेडिंग के बारे में कोई चर्चा हई है? और, क्या आपकी नेट-ज़ीरो के ऊपर कोई चर्चा हुई – पहले 2030 के लक्ष्यों को लेकर और फिर आगे नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के बारे में?
श्री केरी: किस बारे में चर्चा?
पत्रकार: भारतीय अधिकारियों के साथ, आपके भारतीय समकक्षों के साथ।
श्री केरी: किस बारे में?
पत्रकार: कार्बन ट्रेडिंग और कार्बन मार्केट के बारे में।
श्री केरी: अच्छा। ये मुख्य सवाल है।
हां, विस्तार से नहीं, बड़ी चर्चा नहीं हुई, लेकिन दोनों पक्ष सहमत हैं कि कार्बन मार्केट अस्तित्व में है और इसके मौजूद रहने की आवश्यकता है। हमें उन्हें मज़बूत बनाने की जरूरत है। राष्ट्रपति बाइडेन का मानना है कि आगे चलकर हमें कार्बन पर एक क़ीमत लगाने का तरीक़ा खोजना होगा जोकि प्रभावी हो। उन्होंने इस बारे में कोई निर्णय नहीं लिया है या कोई घोषणा नहीं की है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि उत्सर्जन को कम करने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है कार्बन के लिए एक क़ीमत निश्चित करना। हम अभी भी एक क़ीमत अदा कर रहे हैं। आप गैस का मूल्य चुकाते हैं, आप कोयले की क़ीमत अदा करते हैं, और इसका कुछ प्रभाव भी पड़ता है लेकिन किसी ने अभी तक इन चीज़ों की वास्तविकता के अनुरूप क़ीमत नहीं तय की है। तथ्य यह है कि इनकी क़ीमतें इतनी कम हैं कि वैश्विक स्तर पर हमारी अपेक्षा के अनुरूप इसका व्यापक प्रभाव नहीं है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर चर्चा करने की आवश्यकता है। मुझे लगता है कि हमारे पास उपलब्ध साधनों पर आगामी महीनों में कहीं अधिक चर्चा होगी, और निश्चय ही कार्बन मार्केट एक महत्वपूर्ण साधन है।
पत्रकार: सुहासिनी हैदर, द हिंदू से। धन्यवाद। श्रीमान् केरी, आप अगस्त 2016 में यहां आए थे और आपने भारत सरकार के साथ बिल्कुल ऐसे ही विषय पर विचार-विमर्श किया था। उस समय आप पेरिस समझौते से पहले चर्चा कर रहे थे। वास्तव में, भारत अमेरिका के कुछ विशेष आश्वासनों के आधार पर भी पेरिस समझौते में शामिल हुआ था, जोकि जलवायु संबंधी वित्तपोषण, और जलवायु संबंधी न्याय के बारे में था।
इसके बाद अमेरिका में श्री ट्रंप चुने गए और हमने देखा कि अमेरिकी सरकार ने वास्तव में उन प्रतिबद्धताओं में से कइयों को छोड़ दिया, ख़ासकर जलवायु समझौते में दोबारा शामिल होने के लिए। लेकिन इस तरह के बयान भी सामने आए थे कि भारत दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषकों में से है और वो पूर्व में दिए आश्वासनों में से कतिपय का हक़दार नहीं है।
तो मेरा प्रश्न ये है कि वास्तव में कितना नुक़सान पहुंचा है, जब आप मौजूदा समय को इतना अहम बताते हैं, तो जलवायु परिवर्तन पर नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की, जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रयासों की अगुआई करने की अमेरिका की आकांक्षा को पिछले चार वर्षों में कितना धक्का लगा है? और इसकी भरपाई को लेकर आपकी क्या योजना है? मुझे पता है कि वित्त मंत्री ने आपके साथ अपनी बातचीत के दौरान कहा, हमने उनके ट्वीट पढ़े हैं, उसमें कहा गया है कि अमेरिका को उस प्रतिबद्धता पर वापस आना चाहिए – यदि बात विकासशील देशों को विकसित देशों से 100 बिलियन डॉलर की मदद की है। आप पिछले चार वर्षों में हुई क्षति की कितनी शीघ्रता से भरपाई की उम्मीद करते हैं?
श्री केरी: आपको और दुनिया भर के लोगों को यह तय करना होगा कि ऐसा कितनी जल्दी हो। हम इसे तय नहीं कर सकते।
हम ये कर सकते हैं कि हम साफ नीयत से काम करें, और हम वो काम करके अमेरिका की विश्वसनीयता को बहाल कर सकते हैं जिन्हें कि हमने करने की बात की थी।
हमने घोषणा की थी, राष्ट्रपति ओबामा और उपराष्ट्रपति बाइडेन ने यह घोषणा की थी कि अमेरिका जलवायु [अश्रव्य] कोष में 3 बिलियन डॉलर डालने जा रहा है। उस बजट चक्र के दौरान हम शीघ्रता से 1 बिलियन डॉलर का प्रबंधन करने में सफल रहे लेकिन बाद के बजट चक्रों पर हमारा नियंत्रण नहीं था और ट्रंप नाम का यह शख्स सत्ता में आ गया और बाक़ी तो इतिहास है। उन्होंने अमेरिका की विश्वसनीयता को सिरे से ख़त्म कर दिया और विज्ञान से मुंह मोड़ लिया और एकमात्र राष्ट्राध्यक्ष बन गए, सबसे बड़े देशों में से एक का नेता नहीं, बल्कि किसी भी देशा का एकमात्र नेता जिसने समझौते से हटने का फ़ैसला किया। विज्ञान के बिना, किसी भी तर्कसंगत आधार के बिना – केवल अमेरिकी लोगों को ये बताया, जो सच नहीं है, कि पेरिस समझौता अमेरिका पर बहुत बड़ा बोझ है। और आपको पता भी है? पेरिस समझौते ने अमेरिका पर कोई बोझ नहीं डाला। हर देश ने पेरिस में अपनी योजना ख़ुद लिखी। हर देश ने ख़ुद तय किया कि वह क्या करेगा। और हमने यह निर्धारित करने के लिए कि क्या कारगर होगा और हम उसे कैसे कर सकते हैं, तमाम पर्यावरण समूहों और धर्म आधारित समुदायों के साथ ही नहीं, बल्कि बड़े व्यवसायों और अन्य लोगों के साथ भी मिलकर काम किया।
जब हम पेरिस से रवाना हो रहे थे, तो मुझे याद है कि हमने समझौता पारित होने का जश्न मनाने के तुरंत बाद के सत्र में शिष्टमंडलों से कहा था कि हम पेरिस से रवाना होते समय ये भ्रम नहीं पाल रहे कि हमने धरती के तापमान में वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड पर सीमित कर दिया है, 1.5 डिग्री की तो बात ही छोड़ दें। हम पेरिस से रवाना हुए थे दुनिया भर में 196 देशों द्वारा एक ही संदेश जारी करते हुए, कि हम जलवायु संकट से निपटने जा रहे हैं और हम ये सब करने जा रहे हैं।
पर ऐसा नहीं हुआ। और दुर्भाग्य से, यदि हर देश पेरिस में किए अपने वायदे को पूरा भी कर दे, तो भी हम धरती के तापमान में 3.7 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोत्तरी की स्थिति देख रहे होंगे। और, हम वो क़दम उठा भी नहीं रहे जिसे करने की बात हमने पेरिस में की थी।
इसलिए एक तरह से हम चार डिग्री या 4.5 की तरफ़ जा रहे हैं। मुझे हूबहू पता नहीं। कोई भी आपको पूरी सटीक बात नहीं बता सकता। लेकिन वो आपको ये बता सकता है कि हम निश्चित रूप से उस दिशा में बढ़ रहे हैं, नुक़सान के भयानक स्तर की ओर।
तो तात्कालिकता का कारण ये है। इसलिए हम ग्लासगो सम्मेलन में कोई आसान लक्ष्य तय नहीं कर सकते। हमें ऐसी योजनाएं लानी पड़ेंगी जो इस समय बदलाव ला सके। इसीलिए 2050 में नेट-ज़ीरो का लक्ष्य पर्याप्त नहीं है। आप वहां बस ये कहने के लिए नहीं जा सकते कि 30 वर्षों में हम क्या करने जा रहे हैं, क्योंकि आज और 2030 के बीच की अवधि के लिए ज़रूरी क़दम को नहीं उठाने पर आप 1.5 डिग्री के दायरे में रहने या नेट-ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने के लिए ज़रूरी कार्रवाई नहीं कर रहे होंगे। ये वैज्ञानिक रूप से संभव ही नहीं है, जब तक कि सारा कार्बन डाइऑक्साइड निकालकर लंबे समय तक उसका संग्रहण करना संभव करने वाली कोई जादुई खोज नहीं होती है या बिल्कुल ही नए तरह के ईंधन नहीं मिल जाते है – जोकि शायद संभव हो। लेकिन आप धरती को किसी संभावित सफलता, या किसी जादुई प्रगति की आस में दांव पर नहीं लगा सकते। आप ऐसा नहीं कर सकते। और हम यही कर रहे होंगे, यदि हम एकजुट होकर अपने लक्ष्यों को नहीं बढ़ाते हैं।
इसलिए अपने इस दायित्व को समझते हुए ही अमेरिका समझौते से वापस जुड़ा है। यह समझते हुए कि हमें क्या करना है। हम विनम्रता के साथ वापस आए हैं। हम यह जानते हुए वापस आए हैं कि पिछले चार वर्षों से लोगों में निराशा थी। लेकिन हम ये जानते हुए भी वापस आए हैं कि पूरे अमेरिका में गवर्नरों, मेयरों और आम नागरिकों ने पेरिस समझौते में बने रहने के लिए कड़ी मेहनत की है। और इसलिए इससे वापस जुड़ना बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे यहां 37 राज्यों में नवीकरणीय ऊर्जा की भागीदारी वाले क़ानून हैं और 37 गवर्नर – रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही – उन क़ानूनों का पालन करते हैं। इसलिए हमने कुछ हद तक कार्बन को कम करना जारी रखा। हमारे यहां इसके लिए एक हज़ार से अधिक मेयरों ने भी एकजुटता दिखाई। अमेरिका के हर बड़े शहर के मेयर एकजुट हुए और उन्होंने कहा कि हम पेरिस समझौते से बाहर नहीं निकल रहे हैं, हम अभी भी पेरिस समझौते में हैं।
इस तरह डोनल्ड ट्रंप बाहर निकल आए, लेकिन अमेरिकी जनता का बड़ा बहुमत पेरिस समझौते का पालन करता रहा।
यानि हम उनके बाहर निकलने पर निराश हुए लेकिन सच्चाई ये है कि अमेरिका जनता ने संघर्ष जारी रखा। और लोगों को पता होना चाहिए कि वे हमारी विश्वसनीयता को बहाल करने में हमारा साथ देंगे।
इसके अलावा, राष्ट्रपति बाइडेन ने अपना वादा निभाया है। उन्होंने कहा था कि वे पेरिस समझौते में फिर से शामिल होंगे और राष्ट्रपति बनने के कुछ घंटों के भीतर वे समझौते से दोबारा जुड़ गए। उन्होंने तुरंत कार्यकारी आदेश जारी किए जिसने डोनल्ड ट्रंप द्वारा किए गए बुरे कार्यों को पलट दिया; जिसने हमारी जलवायु कार्य योजना को पटरी पर ला दिया; जिसने ऑटोमोबाइल मानकों और अन्य चीजों पर नियंत्रण लगा दिया। और वह उस धन की व्यवस्था करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसका हमने पांच साल पहले वादा किया था।
इसलिए वह 2 बिलियन डॉलर की बकाया राशि की बजट में व्यवस्था करने की योजना बना रहा है, लेकिन साथ ही वह अपने ख़ुद के स्तर पर भुगतान, बाइडेन प्रशासन के भुगतान की भी व्यवस्था करने जा रहे हैं, ताकि वह आगे के वर्षों के लिए अतिरिक्त पैसे जुटा सकें। और, मैं समझता हूं इसे ही अपने दायित्वों के अनुरूप चलना और अपने वायदों पर खरा उतरना करहा जाता है. और मुझे उम्मीद है कि भारत और दुनिया के बाक़ी जगहों के लोग यह समझ सकेंगे कि डोनल्ड ट्रंप, डोनल्ड ट्रंप हैं। वो अब यहां पर हैं। वह रेस हार गए। राष्ट्रपति बाइडेन ओबामा प्रशासन का हिस्सा थे जिसने पेरिस समझौते को संभव बनाया था और अब हम मदद करने की कोशिश करने जा रहे हैं – मेरा मतलब है मदद करना, क्योंकि ग्लासगो को सफल बनाने के लिए प्रत्येक देश अहम है।
ये आपके लिए एक बड़ा जवाब है, लेकिन लोगों के लिए ये जानना महत्वपूर्ण है कि आख़िर क्या हुआ था।
पत्रकार: अनुभूति विश्नोई, द इकोनॉमिक टाइम्स से। श्रीमान् केरी, भारत से अपेक्षा बढ़ गई है कि वह अपना नेट-ज़ीरो लक्ष्य घोषित करे। भारत की अर्थव्यवस्था के अभी भी विकासशील होने के कारण क्या ये एक वास्तविक या व्यावहारिक अपेक्षा है? हम उत्सर्जन के अधिकतम लक्ष्य से वर्षों दूर हैं। क्या आपको लगता है कि भारत से व्यावहारिक रूप से ऐसी अपेक्षा की ज सकती है?
श्री केरी: क्या मुझे लगता है कि ऐसा हो सकता है? हां। क्या मैं यहां ये कहने के लिए आया हूं कि भारत को ऐसा करना ही चाहिए? प्रधानमंत्री के साथ मेरी बैठकों में मेरा ये संदेश नहीं था। वह चुनौती को समझते हैं। भारत चुनौती को समझता है। यह बहुत अच्छा होगा यदि भारत ऐसा निर्धारित करना चाहे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा बिल्कुल होना ही चाहिए ख़ासकर इसलिए कि भारत वो सारे काम कर रहा है जो हमें वहां पहुंचाने के लिए ज़रूरी है, जोकि बहुत सारे राष्ट्रों के मुक़ाबले एक बेहतर स्थिति है। और भारत के पास अभी 450 गीगावाट वाली यह योजना है। यदि 450 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की स्थापना और संचालन हो पाता है, तो भारत 1.5 डिग्री के लक्ष्य की संभावना को बनाए रखने में मददगार कुछ देशों में से एक होगा।
अब, मैं इससे पहले भी इस बात पर ज़ोर दे चुका हूं कि संकल्प लेने से भी अधिक महत्वपूर्ण क्या है – वैसे हम संकल्प लिए जाने का स्वागत करते हैं। बहुतों द्वारा संकल्प लिए जाने को हम पसंद करते हैं। ये हर किसी को इसके लिए प्रेरित करने में मददगार होता है। लेकिन अभी जो बात अधिक महत्वपूर्ण है वो है वास्तविक कार्रवाई – 2020 से 2030 तक – क्योंकि जैसा कि मैंने कहा, यदि आप अभी वास्तविक कार्रवाई करने वाले राष्ट्रों में से एक नहीं हैं, तो आपके लिए 2050 का कोई मतलब नहीं है। अगले महीनों के दौरान यही हमारी चुनौती है – 2020 से 2030 तक की पहलक़दमियों के लिए अधिक से अधिक लोगों को तैयार करना। राष्ट्रपति बाइडेन आगामी शिखर सम्मेलन, जिसकी कि वह मेज़बानी कर रहे हैं, के ज़रिए यही करने की कोशिश कर रहे हैं जहां वह राष्ट्रों को अपने लक्ष्यों को बढ़ाने और पेरिस की बातों पर विचार करने के लिए कहने वाले हैं। यह प्रक्रिया पेरिस समझौते का हिस्सा भी है, कि हम पुनर्विचार करेंगे, कि हम पुनर्मूल्यांकन करेंगे कि हम किस स्तर पर हैं, और ये कि हम लक्ष्यों को बढ़ाने के लिए आगे बैठकें करेंगे। इस शिखर सम्मेलन में दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं एक मंच पर, वर्चुअल माध्यम से, एकत्रित होंगी और हर राष्ट्राध्यक्ष को ये बताने का अवसर होगा कि आगे के लिए उनकी योजनाएं क्या हैं। और वे अपने लक्ष्यों को बढ़ा रहे हैं या नहीं। और हमें लगता है कि ऐसा करना महत्वपूर्ण है।
पत्रकार: अभिषेक दस्तीदार, द इंडियन एक्सप्रेस से। श्रीमान् केरी, मैं कुछ पूछना चाहता हूं जो स्पष्टतया इसी विषय से संबंधित है। जब हम जलवायु पर यह चर्चा कर रहे हैं, तो विश्व स्तर पर, आप युवा जलवायु कार्यकर्ताओं द्वारा निभाई जा रही भूमिका को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं? और सरकारों के लिए यह सुनिश्चित करना कितना महत्वपूर्ण है कि उनके मानवाधिकारों, चाहे वे कहीं भी हों, उनके मानवाधिकारों की रक्षा की जाए? मैं पूछना चाहता हूं कि क्या सरकार इन युवा जलवायु कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाती है? क्योंकि भारत के संदर्भ में बात ये है कि दिशा रवि नामक एक युवा जलवायु कार्यकर्ता को हाल ही में गिरफ़्तार किया गया था क्योंकि उन्होंने किसी विरोध प्रदर्शन के बारे में अपना ऑनलाइन टूलकिट शेयर किया था और वह ग्रेटा थुनबर्ग के साथ संपर्क में थीं। इसलिए, इस मुद्दे पर एक अग्रणी व्यक्तित्व के रूप में, आप युवा जलवायु कार्यकर्ताओं के मानवाधिकारों के संरक्षण में सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?
श्री केरी: मानवाधिकार हमेशा अमेरिका के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है और यह कुछ ऐसा है जिसके अनुरूप आचरण करने में हम गर्व का अनुभव करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में और ऐतिहासिक रूप से अवश्य ही हमारी अपनी आंतरिक चुनौतियां रही हैं, लेकिन युवा लोग – आपने पूछा कि युवा कितने महत्वपूर्ण हैं – युवा लोगों ने दुनिया में बहुत से वयस्कों को वह करने के लिए बाध्य किया है जो कि उन्हें करना चाहिए, और वह है काम को पूरा करना। वयस्कों की तरह व्यवहार करना। प्रमाणों पर भरोसा करना। विज्ञान को महत्व देना। काम करना। और मैं उन कार्यकर्ताओं की बहुत प्रशंसा करता हूं जो ऐसा करते हैं – फ्राइडेज़ फ़ॉर फ़्यूचर या विभिन्न आंदोलनों, 350.ऑर्ग – आपको इन समूहों का नाम पता है। द सनराइज़ मूवमेंट। दुनिया भर के युवा अलग-अलग तरीक़े से अपने भविष्य पर दावा करने की कोशिश कर रहे हैं। और मैं व्यक्तिगत रूप से इस तरह की एकटिविज़्म का स्वागत करता हूं। मुझे लगता है कि यह महत्वपूर्ण है कि यह वोटों में बदले, जहां लोगों को वोट देने का अधिकार है। और अमेरिका में पिछले चुनाव में यह सचमुच वोटों में बदल गया था। जहां तक मुझे याद है कि 1970 के बाद शायद पहली बार पर्यावरण, जलवायु संकट मतदान के दौरान एक मुद्दा बना। यह ऐसा विषय था जिसने लोगों को बाहर आने और संगठित होने और वोट देने के लिए प्रेरित किया। और युवाओं ने इस मुहिम का नेतृत्व किया। पूरी दुनिया में। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर हमने सही क़दम नहीं उठाया तो उनकी दुनिया और उनके भविष्य के साथ क्या होने जा रहा है।
इसलिए ऐतिहासिक रूप से, मुझे लगता है कि जब आप बहुत सारे लोकतंत्रों में इतिहास को देखते हैं, और जहां लोकतंत्र नहीं है वहां भी, और आप पूर्वी यूरोप और अन्य स्थानों में युवाओं को देखते हैं, जिन्होंने सोवियत संघ के खिलाफ संघर्ष किया, और वे वयस्क नेता भी जो विरोध में उठ खड़े हुए थे। मानव अंतरआत्मा में एक भावना होती है जो स्वतंत्रता की मांग करती है। और सम्मान की। और गरिमा की।
इसलिए यह आंदोलन जिसके तहत जलवायु संकट से निपटने में हम सभी शामिल हैं, आख़िर में इस बात से संबंधित है कि लोग भोजन पाने में सक्षम हों और जहां वे रहते हैं, वहां से उन्हें कहीं और इसलिए पलायन नहीं करना पड़े कि वहां गर्मी बहुत बढ गयी है। या आपके पास अब भोजन नहीं है, पानी नहीं है। या जलवायु शरणार्थी जो नया ठिकाना खोजने के लिए मजबूर हैं क्योंकि उनका घर अब रहने योग्य नहीं है। आज यही सब हो रहा है।
हमारी दुनिया में पहले से ही जलवायु शरणार्थी हैं। इसलिए मुझे लगता है कि युवाओं ने किसी और की तुलना में अधिक ज़ोर देकर कहा है, अरे भाई सुनो, तुम लोग सब कुछ बर्बाद कर रहे हो। आप हमारा भविष्य चुरा रहे हैं, आप लोगों को ये सब बंद करना होगा। और मुझे लगता है कि राष्ट्रपति बाइडेन ने उनकी आवाज़ को सुना है। उन्होंने इसे अपने अभियान के प्रमुख मुद्दों में से एक बनाया। और उन्होंने इसको ध्यान में रखते हुए, एक विशेष पद गठित किया ताकि लोगों को संगठित किया जा सके, लोगों के बीच जाकर संकट का समाधान किया जा सके।
तो मुझे लगता है कि ये सब उसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
दुनिया में बहुत सारे देशों में रहने वाले लोग वातावरण में उत्सर्जन में 0.7 प्रतिशत से भी कम का योगदान कर रहे हैं, लेकिन ये लोग अक्सर बीस से अधिक देशों के व्यवहार की सर्वाधिक कीमत चुका रहे हैं – इन 20 राष्ट्रों का संपूर्ण उत्सर्जन में 81 प्रतिशत भागीदारी है। तो फिर उन लोगों पर यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वे उत्सर्जन कम करने की दिशा में प्रयास बढ़ाने की कोशिश करें? हां, बिल्कुल करें। यह उनकी ज़िम्मेदारी है। यह ऐसा सिद्धांत है जिसे हमने रियो में पहली वार्ता के बाद से अपनी बातचीत में निरंतर आगे बढ़ाया है।
लेकिन कोई भी इनका बहाना बनाकर, उन कामों को करने से बच नहीं सकता जोकि उन्हें करने चाहिए। चीन सबसे बड़ा उत्सर्जक है, हम दूसरे सबसे बड़े उत्सर्जक हैं, भारत तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, उसके बाद रूस, इंडोनेशिया और कुछ अन्य देशों का स्थान आता है। और इसलिए, हम सभी को एक साथ जुड़ने की ज़रूरत है। भले ही उन देशों में से कोई एक कल शून्य उत्सर्जन का स्तर हासिल कर ले, अगर यह सिर्फ उनकी उपलब्धि है तो इससे वो बदलाव नहीं आने वाला जिसकी कि हमें आवश्यकता है। हमें इस बात कि आवश्यकता है कि हर कोई शून्य उत्सर्जन की ओर अग्रसर हो।
और यह संभव है। यह एक बहुत ही रोमांचक परिवर्तन होगा। यह आप सभी को मेरा संदेश है, कि जिस आर्थिक परिवर्तन की हम बात कर रहे हैं वो बहुत व्यापक है। इसमें भरपूर नौकरियां हैं। ग्रिड के निर्माण के लिए नौकरियां, नई ट्रांसमिशन लाईन के लिए नौकरियां, नए सौर संयंत्र का निर्माण करने के लिए नौकरियां, इन चीजों का प्रबंधन करने के लिए रोज़गार, सौर पैनलों का निर्माण करने के लिए रोज़गार, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने के लिए नौकरियां। सूची बहुत लंबी है। ऐसी नई इमारतों के निर्माण के लिए नौकरियां, जो बेहतर सामग्री से बनाई गई हों, जो अधिक ऊर्जा सक्षम हों, जो बहुत अधिक ऊर्जा की मांग नहीं करती हों, और ऐसे ही अन्य बातें। यही है भविष्य। और सभी युवा जो इस भविष्य के लिए ज़ोर लगा रहे हैं, उनके पास इस भविष्य को कई अलग-अलग तरीकों से परिभाषित करने के अवसर होंगे।
मुझे लगता है कि ये एक महान अवसर है।
मुझे इसमें संदेह नहीं है कि हम एक शून्य कार्बन वाली अर्थव्यवस्था को हासिल करेंगे। लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव के चलते, अभी तक मैं इस बात पर आश्वस्त नहीं हूं कि हम वहां पर्याप्त तेज़ी से पहुंच पाएंगे कि नहीं। यही चुनौती है। यह कोई प्रलयंकारी स्थिति वाली बात नहीं है कि जब हम कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होते – ऐसा नहीं है। हमारे पास इस संकट को हल करने के लिए निर्णय लेने की क्षमता है, और हमें सिर्फ वयस्कों की तरह व्यवहार करना होगा जोकि हम कथित रूप से हैं, और इस काम को पूरा करना होगा।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए धन्यवाद। मैं आभारी हूं।
मूल स्रोत: https://www.state.gov/briefing-with-special-presidential-envoy-for-climate-john-kerry/.
अस्वीकरण: यह अनुवाद शिष्टाचार के रूप में प्रदान किया गया है और केवल मूल अंग्रेज़ी स्रोत को ही आधिकारिक माना जाना चाहिए।